हक़ प्रस्ती का तराना है ज़ुबां मनसूर की।
जिंदगी की रौशनी है-दास्तां मनसूर की।।
शाही सौदागर याक़ूब खां अपनी कनीज़ के लिए शानदार महल और किला याक़ूत बनाने के लिए बादशाह सलामत से “लालाज़ार” ख़रीदता है। प्रधानमन्त्री रशीदख़ान सिफारिश करता है-लालाज़ार (ज़मीन) का मालिक जागीरदार मनसूर दरबार में फरयाद करता है। लेकन सब व्यर्थ। शहज़ादी के सिवा और कोई उसका समर्थन नहीं करता। आख़िर मनसूर अपने पैदायशी हक़ की रक्षा करता हुआ अशरफ़ीया उठा ले जाता है-और बादशाह मनसूर को डाकू करार देता है।
रशीदख़ान ज़रीना को मलका बनाने का लालच देता है-और शहज़ादी को गायब करा देता है-ज़रीना के सिपाहियों से मनसूर शहज़ादी को छुड़ा लेता है- रशीदख़ान और ज़रीना बादशाह को बरग़लाते हैं और शहज़ादी पर तोहमत लगाते हैं कि वह मनसूर के पास चली गई है। जब मनसूर शहज़ादी को लौटाने आता है तो रशीदख़ान मनसूर को बादशाह तक जाने ही नहीं देता-मनसूर रशीदख़ान से लड़ता है और उसे बांधकर वापिस लौट जाता है।
रशीदख़ान बाप बेटी की बेइतफाक़ी से लाभ उठाता है-शहज़ादी को अपनी मुहब्बत पेश करता है-पर वह ठुकरा देती है-तब रशीदख़ान बादशाह को गरिफ़्तार कर लेता है-और शहज़ादी को अपनी निगरानी में रखता है। ज़रीना को रशीदख़ान की ग़द्दारी पर बहुत अफ़सोस होता है। जब मनसूर सफाई पेश करने के लिए आता है और पकड़ा जाता है तब ज़रीना उसे चालाकी से रिहा कर देती है।
रशीदख़ान बादशाह को क़तल कर देने के आर्डर देता है-और इल्ज़ाम मनसूर पर लगा देता है। जशने ताजपोशी और शादी का एलान करता है। यह सनसनी खेज़ कहानी, दर्दनाक और खौफ़नाक मोड़ों से कैसे गुज़रती है- किस तरह बादशाह की रिहाई होती है। सच्चाई, बहादुरी और ईमान की कैसे जीत होती है यह सब आप फ़िल्म देखेंगे तो अवश्य आपके दिल से आवाज़ आएगी कि वाक़ई...
हक़ परस्ती का तराना है ज़ुबां मनसूर की।
जिंदगी की रौशनी है-दास्ताँ मनसूर की।।
[from the official press booklet]